शरद पूर्णिमा व्रत कथा: मां लक्ष्मी की कथा का पाठ करें, प्राप्त होगा व्रत का पूर्ण फल

शरद पूर्णिमा व्रत कथा: मां लक्ष्मी की कथा का पाठ करें, प्राप्त होगा व्रत का पूर्ण फल

Sharad Poornima Vrat Katha | शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहते हैं, हिंदू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस रात मां लक्ष्मी धरती पर भ्रमण करती हैं और अपने भक्तों को धन-समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं। शरद पूर्णिमा के व्रत के साथ व्रत कथा का पाठ करने से पूजा का फल कई गुना बढ़ जाता है। आइए शरद पूर्णिमा की व्रत कथा को विस्तार से जानें।

शरद पूर्णिमा व्रत कथा

एक दिन भीष्मजी ने पुलस्त्यजी से पूछा, “मुने, मैंने सुना है कि देवी लक्ष्मी क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं, फिर आप यह कैसे कहते हैं कि वे भृगु की पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुई थीं?”

पुलस्त्यजी ने उत्तर दिया, “राजन, तुम्हारा प्रश्न उचित है। मैंने स्वयं ब्रह्माजी से सुना है कि देवी लक्ष्मी का जन्म क्षीर सागर से हुआ था। सुनो, मैं तुम्हें वह कथा विस्तार से बताता हूँ।”

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प्राचीन काल में दैत्यों और दानवों ने विशाल सेना के साथ देवताओं पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में देवता परास्त हो गए। तब इंद्र सहित सभी देवता अग्निदेव को साथ लेकर ब्रह्माजी की शरण में गए और अपनी व्यथा सुनाई। ब्रह्माजी ने कहा, “चलो, हम सब भगवान विष्णु की शरण में जाएँ।” वे सभी देवताओं को लेकर क्षीर सागर के उत्तर तट पर पहुंचे और भगवान वासुदेव से बोले, “हे विष्णु, शीघ्र उठें और इन देवताओं का कल्याण करें। दानवों के कारण ये बार-बार हार रहे हैं।”

कमलनयन भगवान विष्णु ने देवताओं की दयनीय स्थिति देखी और बोले, “देवगण, मैं तुम्हारा तेज बढ़ाऊंगा। मेरे बताए उपाय को अपनाओ। दैत्यों के साथ मिलकर सभी औषधियां लाओ और उन्हें क्षीर सागर में डालो। मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन शुरू करो। मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। मंथन से निकले अमृत को पीकर तुम बलवान और अमर हो जाओगे।”

भगवान की बात मानकर देवताओं ने दैत्यों से संधि की और मंथन की तैयारी शुरू की। सभी ने मिलकर औषधियां एकत्र कीं और क्षीर सागर में डालीं। मंदराचल को मथानी और वासुकी को रस्सी बनाकर मंथन शुरू हुआ। भगवान विष्णु की प्रेरणा से देवता वासुकी की पूंछ की ओर गए, जबकि दैत्यों को सिर की ओर भेजा गया। वासुकी के मुख से निकलने वाली विषाग्नि से दैत्य कमजोर पड़ गए।

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भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुआ) रूप धारण कर मंदराचल को अपनी पीठ पर संभाला। ब्रह्मा और महादेव मंदराचल को पकड़े हुए थे। मंथन शुरू हुआ तो सबसे पहले सुरभि (कामधेनु) प्रकट हुई, जो हविष्य की स्रोत थी। फिर वारुणी देवी प्रकट हुईं, जिनके मदभरे नेत्र और लड़खड़ाते कदम थे। देवताओं ने उन्हें अपवित्र मानकर त्याग दिया। वारुणी ने दैत्यों से कहा, “मैं बल देने वाली देवी हूँ, मुझे ग्रहण करो।” दैत्यों ने उन्हें स्वीकार किया।

मंथन आगे बढ़ा तो पारिजात वृक्ष प्रकट हुआ, जो देवताओं को आनंदित करने वाला था। फिर साठ करोड़ अप्सराएं प्रकट हुईं, जो देवताओं और दानवों दोनों के लिए सुलभ थीं। इसके बाद शीतल किरणों वाला चंद्रमा प्रकट हुआ। भगवान शंकर ने कहा, “यह चंद्रमा मेरी जटाओं का आभूषण होगा।” ब्रह्माजी ने उनकी बात का समर्थन किया।

फिर कालकूट विष निकला, जिससे सभी को पीड़ा हुई। शंकरजी ने उसे पी लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। शेष विष नागों ने ग्रहण किया। इसके बाद धन्वंतरी अमृत का कमंडल लेकर प्रकट हुए, जिनके दर्शन से सभी प्रसन्न हुए। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत हाथी प्रकट हुए।

अंत में, कमल पर विराजमान मां लक्ष्मी प्रकट हुईं, जिनका प्रकाश चारों ओर फैला था। महर्षियों ने श्रीसूक्त का पाठ कर उनकी स्तुति की। क्षीर सागर ने उन्हें अमर कमल की माला भेंट की, और विश्वकर्मा ने आभूषणों से सजाया। इंद्र और अन्य देवताओं ने उन्हें पाने की इच्छा जताई, लेकिन ब्रह्माजी ने कहा, “वासुदेव, आप ही लक्ष्मी को ग्रहण करें। आपने इस मंथन को सफल बनाया है।”

लक्ष्मीजी भगवान विष्णु के वक्षस्थल में समा गईं और बोलीं, “हे प्रभु, आप मेरा कभी त्याग न करें। मैं सदा आपके आदेश का पालन करूंगी।” उनकी कृपादृष्टि से देवता प्रसन्न हुए, जबकि दैत्य उद्विग्न हो गए।

दैत्यों ने धन्वंतरी से अमृत का पात्र छीन लिया। तब विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को लुभाया और अमृत देवताओं को दे दिया। अमृत पीकर देवता बलवान हुए और दैत्यों को परास्त कर स्वर्ग लौट गए। दैत्य भागकर पाताल चले गए।

इसके बाद सूर्य की प्रभा स्वच्छ हुई, अग्नि प्रज्वलित हुई, और प्राणियों का मन धर्म में लगा। ब्रह्माजी ने कहा, “देवगण, विष्णु और शिव आपकी रक्षा करेंगे। उनकी सदा उपासना करो।” फिर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इंद्र अपने-अपने धाम लौट गए। इस प्रकार मां लक्ष्मी क्षीर सागर से प्रकट हुईं।

शरद पूर्णिमा पर इस कथा का पाठ करने से मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है। यह व्रत धन, सुख और समृद्धि प्रदान करता है। कथा पाठ से व्रत का पूर्ण फल मिलता है और जीवन में सकारात्मकता आती है।


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