नांदेड़ का मेला: मैं और मेरा बचपन

नांदेड़ का मेला: मैं और मेरा बचपन

Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein | मेरा बचपन एक छोटे से गांव में बीता, लेकिन उसकी स्मृतियाँ आज भी मेरे जीवन के सबसे हसीन पलों में शुमार हैं। मेरा गांव लोध, उज्जैन जिले की तराना तहसील में स्थित है, और उससे लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर बसा है नांदेड़—एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध गांव। यहीं पर हर साल चैत्र नवरात्रि के अवसर पर एक विशेष मेला लगता है, जिसे स्थानीय लोग “जग” कहते हैं।
नांदेड़ सिर्फ एक सामान्य गांव नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यहां प्राचीन समय से राजा भर्तृहरि की गुफा स्थित है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह उज्जैन तक जाती है। यह रहस्यमय गुफा गांव की प्राचीनता और सांस्कृतिक विरासत की प्रतीक है। Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein

Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein

मैंने अपनी माध्यमिक शिक्षा नांदेड़ गांव से ही पूरी की थी। पहली बार जब मैं नांदेड़ के मेले में गया, मेरी उम्र महज़ सात या आठ वर्ष रही होगी। माँ के साथ गया था, और इस छोटे से मेले में ही मैं खो गया था। वह डर, घबराहट और फिर माँ को देखकर आंखों में आंसुओं के साथ मिली राहत—आज भी सब कुछ जैसे आंखों के सामने ताज़ा हो उठता है। बड़े होने पर जब मैंने वहीं पढ़ाई शुरू की और मेला बार-बार देखने का मौका मिला, तो खुद पर हंसी भी आती थी कि ऐसे छोटे मेले में मैं कैसे गुम हो गया था!

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मेले की जान रामलीला का मंचन

इस मेले की सबसे खास बात होती थी रात में होने वाली दस दिवसीय रामलीला। इसे देखने के लिए न केवल नांदेड़, बल्कि आसपास के गांवों से भी लोग पैदल चलकर आया करते थे। रोज़ाना करीब 2000 से ज्यादा लोग रामलीला का आनंद लेने आते थे। मैं अपने काका साहब के साथ अपने गांव लोध से पैदल चलकर नांदेड़ पहुंचता था। वह मुझे अपने कंधे पर बैठाकर ले जाते थे—वो प्यार, वो अपनापन आज भी दिल को गुदगुदा जाता है।

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रामलीला में रावण की भूमिका निभाने वाले कलाकार ठाकुर मदनसिंह (जिन्हें लोग ‘रावण’ उपनाम से भी जानते थे) की आवाज़ बेहद बुलंद और प्रभावशाली हुआ करती थी—बिलकुल रामानंद सागर की रामायण वाले रावण की तरह। उनका अभिनय इतना जीवंत होता था कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते थे।

चैत्र दशमी के दिन रावण दहन होता था, और यह दिन मेले की सबसे बड़ी घटना होती थी। आसपास के गांवों से लोग अपनी बैलगाड़ियों में परिवार समेत आते थे। बच्चों की चहल-पहल, ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें और चारों ओर खुशियों का माहौल—यह सब मिलकर एक अद्भुत अनुभूति देते थे।

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मेले का मेरे लिए सबसे खास आकर्षण थे वहां बिकने वाले लकड़ी के ट्रैक्टर। ये खिलौने इतने सुंदर और मजबूत होते थे कि गांव के बच्चे सालभर उनका इंतज़ार करते थे। मैं इन ट्रैक्टरों को खरीदने के लिए खेतों में जाकर सोयाबीन के दाने बीनता, उन्हें बेचकर पैसे जमा करता और फिर मेले में जाकर वो ट्रैक्टर खरीदता। उस खिलौने की डोरी को पकड़कर गांव की गलियों में उसे घुमाना मेरे लिए किसी राजकुमार जैसा अनुभव होता था। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। नांदेड़ में यज्ञ का आयोजन आज भी होता है, लेकिन मेले की रौनक अब पहले जैसी नहीं रही। अब कुछ दुकानें लगती हैं, लेकिन वह एक हाट-बाजार जैसी लगती हैं, मेले जैसी नहीं।

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कभी लगता है कि शायद अब मैं बड़ा हो गया हूं, इसलिए मेला छोटा लगने लगा है, लेकिन हक़ीक़त यह भी हो सकती है कि मेला सच में सिमट गया है। फिर भी, वह बचपन की स्मृतियाँ, वो लकड़ी का ट्रैक्टर, काका साहब के कंधे, रामलीला की गूंजती आवाज़ें—ये सब आज भी मेरे भीतर एक उजली दुनिया को जीवित रखते हैं।

नांदेड़ का मेला मेरे लिए केवल एक आयोजन नहीं था, वह मेरे बचपन की एक संजीवनी थी, जो आज भी मुझे अंदर से संबल देती है। समय चाहे बदल जाए, मेले का स्वरूप चाहे छोटा हो जाए, लेकिन उन स्मृतियों की गरिमा कभी कम नहीं हो सकती।

Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein

आज का दिन मेरे लिए बेहद खास है, क्योंकि आज चैत्र दशमी है—वही दिन जब नांदेड़ के मेले का समापन होता है और रावण दहन की परंपरा निभाई जाती है। वर्षों बीत गए, लेकिन आज भी चैत्र दशमी आते ही मन स्वतः नांदेड़ की ओर खिंच जाता है।

हालाँकि अब वहाँ की चहल-पहल वैसी नहीं रही, रामलीला भी शायद नहीं होती, और बैलगाड़ियों की लंबी कतारें भी नहीं दिखतीं—फिर भी स्मृतियाँ अब भी ज्यों की त्यों हैं। आज भी जब मैं आंखें बंद करता हूँ, तो वही लकड़ी का ट्रैक्टर, वही रामलीला का मंच, और वही भीड़ मेरे सामने जीवित हो उठती है।

Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein

यह दिन अब मेरे लिए न केवल एक सांस्कृतिक परंपरा का प्रतीक है, बल्कि मेरे बचपन के सबसे सुनहरे अध्याय का स्मरण भी है। Nanded ka Mela aur Bachpan ki Yaadein


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