अब घर आंगन में नजर नहीं आती संजा की आकृति

मालवा का लोक पर्व संजा धीरे धीरे हो रहा विलुप्त अब घर आंगन में नजर नहीं आती संजा की आकृति

Ujjain News | उज्जैन। मालवा और निमाड़ क्षेत्र का पारंपरिक संजा पर्व, जो श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों में कुंवारी कन्याओं द्वारा उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता था, अब धीरे-धीरे अपनी पहचान खो रहा है। यह पर्व, जो कभी हर घर-आंगन में रंग-बिरंगी रंगोलियों और मालवी गीतों के साथ जीवंत होता था, अब शहरों के साथ-साथ गांवों में भी कम ही देखा जा रहा है। आधुनिकता, शहरीकरण और बदलते सामाजिक मूल्यों ने इस सांस्कृतिक धरोहर को हाशिए पर धकेल दिया है। आइए, संजा पर्व की महत्ता, इसके विलुप्त होने के कारणों और इसे पुनर्जनन के उपायों पर विस्तार से जानें। Ujjain News

पूर्णिमा से अमावस्या तक चलने वाले इस लोक पर्व के लोक गीत कुछ वर्षों पूर्व तक घर के ओटलो पर सुनाई देते थे। शाम ढलते ही मोहल्ले की कुंवारी कन्याओं द्वारा एक घर से दूसरे घर जाकर संध्या की आरती करना व फिर लोक गीतों को गुनगुनाना माहौल को खुशनुमा बना देता था। उत्सव के रूप में संजा अब विलुप्ति की ओर है। आंगन अब सूने पड़े हैं। लोक गीत के बोल और सहेलियों के उन्मुक्त ठहाके नहीं सुनाई देते हैं। आधुनिकीकरण ने इस लोक उत्सव से मानव और प्रकृति को दूर कर दिया है और कलाकारों के जन्म पर विराम लगा दिया है। संजा गोबर लिपी दीवार से लेकर छपे छपाए कागजों तक का सफऱ तय कर चुकी है। हालांकि कला के क्षेत्र में संजा का वर्चस्व पिछली पीढिय़ों ने अब भी जीवित रखा है। दीवारों को सजाने के लिए स्टिकर और तस्वीरों के रूप में संजा की आकृति निमाड़ तथा मालवा क्षेत्र में उपलब्ध रहती है। 16 दिनों चलने वाले इस लोक त्यौहार में पहले दिन संजा की आकृति में पांच पांचिए, चांद व सूरज की आकृति उकेरी जाती थी। प्रकृति के रंग में रंगी संजा तथा सांझ ढलते गूंजते लोक गीतों के स्वर प्रकृति के प्रति उऋण होने का भाव प्रदर्शित करते थे। दूसरे दिन बिजोरा की आकृति, तीसरे दिन छाबड़ी, चौथे दिन चौपड़ की आकृति उकेरी जाती थी। जबकि ग्यारहवें दिन किला कोट बनाया जाता था। इसमें हाथी-घोड़ा, पालकी, जाड़ी, जसोदा, पतली पेम व विलन बाई की गाड़ी बनाते थे। नवरात्रि के पहले दिन इस 16 दिन की आकृतियों को बांस की टोकरी में भरकर नदी पर विसर्जित करते थे। इन 16 दिन में मां पार्वती की आराधना कुंवारी कन्याएं बड़े मनोयोग से करती थी। प्रतिदिन शाम को मान-मनुहार के साथ संजा स्वरूपा मां पार्वती की आराधना गीतों के रूप में करती थी। संजा को आमंत्रित करते हुए गाते हुए भाव प्रकट करती थी कि संजा की गाड़ी लुडक़ती जाय, लुडक़ती जाय, जिमे बैठ्या संजाबई। फिर जब संजा आती थी तो चिंतित स्वर में गाती थी कि संजा तू थारे घर जा, नी तो थारी मां मारेगी, कूटेगी। वहीं श्राद्घ पक्ष में कौवों को पूछते हुए गाया जाता था- कारे कागला, कियां घर को न्योतो आयो रे। अब यह आकृति और संजा के गीत आधुनिकता में खोते जा रहे हैं। Ujjain News


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